Wednesday, October 16, 2024

रिटायरमेंट के बाद

 

आज जब मैं छत से पड़ोस की बगिया में झांकती हूँ, तो छोटे-छोटे बच्चे आम तोड़ते, खेलते दिख जाते हैं। उनका मस्ती में दौड़ लगाना, हँसना, और कभी-कभी आम के लिए झगड़ना—बस देखते-देखते मन गदगद सा हो जाता है। लेकिन जैसे ही नज़र थोड़ी दूर जाती है, तो मन में एक हल्की सी चुभन महसूस होती है। नज़र ठहर जाती है दादू पर – बेचारे, अब ज़्यादातर वक्त अपनी पुरानी खाट पर बैठे-बैठे ही गुज़ारते हैं, जैसे उनके लिए दिन बस एक लंबा इंतज़ार हो।


रिटायरमेंट भी अजीब चीज़ है ना? ज़िंदगी भर की धूम-धाम, मेहनत और दिन-रात का काम, सब अचानक थम जाता है और फिर आता है वो अकेलेपन का एहसास, जैसे पूरी दुनिया किसी अजीब सी खामोशी में खो गई हो। जब तक साथ में कोई अपना होता है, तब तक वक्त का पता ही नहीं चलता। लेकिन अब, जब दादी नहीं हैं, तो वो दिन... एक-एक पल घड़ी की सुई जैसा लगता है, धीरे-धीरे खिसकता हुआ।


दादू जब काम करते थे, तब उनकी ज़िंदगी में एक अलग ही रौनक थी। सरकारी दफ्तर में उनका अच्छा-खासा दबदबा था। हर सुबह, भोर चार बजे उठकर तैयार होते थे। उठने के बाद, सबसे पहले अपने पोते को दुलार से पुकारा करते थे। दादू हमेशा उसे चवन्नी देते थे, ताकि वो अपनी पसंदीदा टॉफियाँ खरीद सके। फिर नित्य कर्म करने के बाद, ऑफिस जाने से पहले अपने पोते को अपनी साइकिल पर दो राउंड घुमाते थे। पोता ज़िद करता, "दादू, एक चक्कर और लगाइए!" और दादू हंसकर उसकी बात मान लेते, जैसे वो भी उस खुशी में शामिल हो जाते।दफ्तर के लिए निकलते वक्त, उनकी साइकिल की घंटी और ज़ोरदार आवाजें गूंजती थीं। दादू की साइकिल में एक खास आकर्षण था। जब वो साइकिल चलाते थे, तो आस-पास के लोग उन्हें देखकर मुस्कुराते थे। दादू का यह प्रेम और उनकी ज़िंदगी की खुशियाँ अब केवल यादों में रह गई हैं, लेकिन वो लम्हें हमेशा दिल को छूते हैं।


दादू अक्सर अपनी जवानी के दिन याद करते हैं। उनकी यादों में गाँव का एक पुराना बाजार, पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर गप्पें मारना, और रात को ताश खेलना, सब ज़िंदा है। एक दिन हँसते हुए बोले, "अरे बेटा, हम भी एक ज़माने में बड़े शहज़ादे थे! जवानी में तो हमारे ठाठ ही अलग थे।" फिर शादी के दिन की बात करते हुए बोले, "शादी में मेरे लिए घोड़ा तक नहीं था। गाँव में साइकिल की बारात गई थी! और जब बारात कानपुर से निकली, तो साइकिल आधे रास्ते में टूट गई थी। वो कहानी अब भी याद करके हँस-हँसकर पेट में दर्द हो जाता है।" और फिर उनके चेहरे पर वो मासूम सी हँसी आ जाती, जैसे उनकी जवानी लौट आई हो।लेकिन सच्चाई ये है कि अब वक्त बदल गया है। जब अपने ही बच्चे बोझ समझने लगते हैं, तो दिल कैसे सँभाले कोई? बेटा-बहू दोनों अपने-अपने काम में इतने व्यस्त हो गए हैं कि दादू की तरफ़ देखने का भी वक्त नहीं मिलता। एक दिन सुनने में आया था, "दादू अब तो बस घर के एक कोने में बेकार पड़े रहते हैं, बुढ़ऊ ने एक खाट घेर रखी है।" बस, उस दिन के बाद उनकी आँखों में एक अलग सी उदासी आ गई थी, जो कहती तो कुछ नहीं थी, पर बहुत कुछ दिखाती थी। अब वो चुपचाप बस अपने कमरे की खिड़की से बाहर की दुनिया को देखते रहते हैं।


उनका शरीर भी धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। हाथ काँपने लगे हैं, आँखें अब धुँधली सी हो गई हैं। और सुनने की शक्ति? वो तो अब बिल्कुल धीमी पड़ गई है। कभी-कभी उन्हें ज़ोर से बोलना पड़ता है, पर कान अब इन आवाज़ों को सुनने के लिए तैयार नहीं होते। शायद अब दुनिया को वैसा देखने की चाह भी नहीं रही, जैसी पहले थी।


दादी जी के जाने के बाद तो दादू का दुनिया से मन ही उठ गया है। उन्हें अब न कोई मेला लुभाता है, न त्योहार और न बाज़ार। पहले दादू मेला देखने जाया करते थे, रात में काली जी के वेश में नाचते लोगों को देखकर चिल्लाते थे, "बोलो काली मइया की जय!" एक बार उन्होंने दादी के साथ मेला देखा था। याद करते हुए बोले, "हमें तो एक बड़ा हाथी दिखाया था, और जब मैंने प्यार से उसके पैर पर हाथ फेरा, उसने मेरी टोपी ही ले ली!" दादी ने हँसते हुए कहा था, "तेरे जैसा ही है रे हाथी भी!" अब वो कहानी सुनाते हैं, पर हँसी कम और आँखों में नमी ज़्यादा होती है।


उनके बेटे की सैलरी तो अच्छी-खासी है – साल की 65 लाख! पर दादू की अपनी पेंशन? वो तो बस कुछ हज़ार रुपये ही है। फिर भी, हर महीने पेंशन आते ही वो बिना कुछ कहे सारा पैसा बेटे के हाथ में थमा देते हैं। शायद ये सोचकर कि बेटा जो भी करेगा, सही करेगा। लेकिन, अंदर ही अंदर ये भी सोचते हैं कि क्या उनकी पेंशन सच में उनके काम आती है? शायद नहीं... पैसा तो बस बहाना है, असल में वो इसी बहाने थोड़ी बातचीत, थोड़ी इज़्ज़त की आस रखते हैं।


सुबह-शाम बहू के हाथ की रोटी, जो कभी-कभी तीखी मिर्च वाली तरकारी के साथ मिलती है, दादू बस चुपचाप खा लेते हैं। कभी-कभी खाना चखकर रख भी देते हैं, और जो बचता है, वो कुत्ते को डाल देते हैं। बाहर के कुत्ते भी जानते हैं कि दादू उनके लिए कुछ न कुछ लेकर आएँगे। शायद इसी वजह से उनकी तबीयत भी ढीली पड़ने लगी है, ऑपरेशन के बाद से और भी ज़्यादा।


फिर भी, कभी-कभी जब दादू हँस देते हैं ना, तब सब कुछ एक पल के लिए ठीक लगता है। वो पुराने लम्हे याद करते हैं – अपने दोस्तों के साथ बिताए हुए पल, या बचपन में दादा के साथ गुज़ारी हुई शामें। पर सच यही है कि अब ज़िंदगी बस चल रही है... जी रहे हैं, लेकिन वो ख़ुशी, वो रंग कहीं खो गया है।आख़िर में, जब तक ज़िंदगी है, दादू को बस थोड़ी बातचीत, थोड़ा साथ चाहिए। वो अकेले दिन, वो लंबी शामें, कभी-कभी बस एक हाथ थामने वाली मुस्कान ढूँढ़ रही होती हैं। ज़िंदगी को फिर से ज़िंदा करने के लिए थोड़ी सी मुस्कान और कुछ पुराने लम्हे याद करते-करते, दादू अब भी दुनिया से थोड़ी उम्मीद करते हैं।

                                                          

                                                      ------oshii---------

9 comments:

  1. Bahut hi sundar❤️

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  2. Tumne to Puri kahani likh di.. great work

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  3. Love it... great work

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  4. You have beautifully depicted the condition of someone who grows old.
    Nice work

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  5. You have beautifully depicted the condition of someone who grows old
    Nice work

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  6. Very Good Osita and keep it up

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  7. # Touch the heart with very true story 💗

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  8. Baah, write more

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A warrior ready for the fight